Punjab: पाकिस्तान से लगते सूबे में जीत गए खालिस्तान समर्थक, क्या लोगों में राजनीतिक दलों को लेकर है नाराजगी?

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By A2z Breaking News



पंजाब में बढ़ रहे गर्मख्याली नेता
– फोटो : अमर उजाला

विस्तार


लोकसभा चुनाव में पंजाब के नतीजे हैरान करने वाले हैं। खालिस्तान समर्थक और ‘वारिस पंजाब दे’ का प्रमुख अमृत पाल सिंह अब खडूर साहिब लोकसभा सीट से निर्दलीय सांसद है। वह संगीन अपराध की धाराओं में असम की जेल में बंद है। दूसरा नाम है सरबजीत सिंह खालसा। सरबजीत सिंह के पिता बेअंत सिंह पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का गुनाह साबित हुआ था। सरबजीत सिंह ने फरीदकोट लोकसभा सीट से जीत हासिल की है। उन्हें भी खालिस्तान समर्थक माना जाता है। जब कंगना रणौत को सीआईएसएफ की महिला सिपाही थप्पड़ मारती है, तो यह चर्चा शुरू हो जाती है कि आरोपी महिला सिपाही भी देर-सवेर, पंजाब की राजनीति में हाथ आजमा सकती है। 

पंजाब में क्या-कुछ बदल रहा है, यह जानने के लिए ‘अमर उजाला’ ने इस सूबे को गहराई से समझने वालों से बात की। कीर्ति किसान यूनियन की राज्य कमेटी के सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता रमिंद्र सिंह कहते हैं, ‘देखिए, पंजाब में मौजूदा स्थिति ठीक नहीं है। पाकिस्तान से लगते इस सूबे में अब खालिस्तान अंडरग्राउंड नहीं रहा। यहां पर भले ही कई राजनीतिक दल सक्रिय हैं, लेकिन इसके बावजूद मुख्य मुद्दों की अनदेखा की जा रही है। इसके चलते पंजाब में एक ‘पॉलिटिकल वैक्यूम’ की स्थिति पैदा हो गई है। दिल्ली से तो पंजाब नहीं चलेगा। अगर इन मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया तो राज्य के हालात बिगड़ने में वक्त नहीं लगेगा।’

‘लोग राजनीतिक दलों से नाराज’

रमिंद्र सिंह बताते हैं, ‘खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत के कुछ मायने हैं, मतलब है। ये राजनीति है। इसमें कुछ पता नहीं चलता कि कौन-किसके साथ है। पंजाब में ‘आप’ को भरपूर वोट मिला, लेकिन वह पॉजिटिव वोट नहीं था। लोग, परंपरागत अकाली दल और कांग्रेस से छुटकारा चाहते थे। कोई भी दल, जो कह रहा है, उतना डिलीवर नहीं कर पा रहा। गंभीर मसले, वहीं के वहीं हैं। उन पर कोई बात ही नहीं करता। पंजाब में इंजीनियरिंग कॉलेज खाली पड़े हैं, जबकि विदेश जाने के लिए आइलेट्स सेंटरों पर भीड़ लगी है। पंजाब के लोग, किसी दल को परखने में ज्यादा वक्त नहीं लगाते। एक डेढ़ साल में ही सरकार को परख लिया जाता है।’

उन्होंने कहा, ‘लोकसभा चुनाव में लोगों का वही गुस्सा नजर आया। उन्हें लगा कि कोई भी पार्टी उनके मुख्य मुद्दों पर नहीं आ रही है। नतीजतन वोट बिखर गया। इन सबके बीच भाजपा जैसे अपने पत्ते खोज रही है। बात चाहे खालिस्तान की हो या विकास की, इसकी आड़ में राजनीति तो हो ही रही है। किसी को हिंदू वोट बैंक और उसमें भी दलित पसंद आ रहा है, तो कोई कट्टर सिखों को अपने समर्थन में कर रहा है। यह नीति भी ‘यूज एंड थ्रो’ की है। एक खेला है, जिसे उभारा जाता है। अब अमृतपाल को ही देखें, दो तीन साल पहले वह दुबई से पंजाब आता है। रातों-रात स्टार बन जाता है। बेअदबी की घटना होती है। लंबे समय तक पंजाब पुलिस अमृतपाल का पता नहीं लगा पाती। वह खुद सरेंडर करता है। ये कोई सामान्य घटना नहीं थी। बहुत कुछ प्लांड भी होता है। पंजाब के माझा और मालवा इलाकों में गर्मख्याली नेता खड़े हो रहे हैं। अगर 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो इस बार ऐसे उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा थी, जो खालिस्तानी विचारधारा के समर्थक हैं। इसी के तहत खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत हो गई। तीसरे उम्मीदवार, खालिस्तान समर्थक अकाली दल (अमृतसर) के सिमरनजीत सिंह मान चुनाव हार गए। लोगों में यह मैसेज जा रहा था कि अमृतपाल सिंह के साथ ठीक नहीं हुआ। लोगों ने उसे भावनात्मक तरीके से ले लिया। लोगों को कुछ कुर्बानी जैसा दिखाई पड़ा। वहीं, पंजाब में पहले भी सरबजीत सिंह खालसा के दादा और मां, सांसद रहे हैं।’

‘अकाली दल का वोट बैंक खिसका’

रमिंद्र सिंह कहते हैं, ‘अगर पंजाब में राजनीतिक खालीपन नहीं भरा गया, तो मामला खराब होगा। राज्य में इस खालीपन को भरा नहीं जा रहा। राजनीतिक दल, अपने स्वार्थ में लगे हैं। पंजाब को दिल्ली से चलाने की कोशिश हो रही है। ऐसा नहीं चलेगा। विधायकों की कहीं पर कोई पूछ नहीं हो रही। विधानसभा में 92 सीटों पर काबिज होने वाली ‘आप’ लोकसभा चुनाव में सिमटती हुई दिखाई पड़ी। अकाली दल, पहले राज्य के अधिकार की राजनीति करता था, अब वो एजेंडा छूट रहा है। अकाली दल ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया। ये उसके कोर एजेंडे के खिलाफ था। किसानों के मुद्दे, इस पार्टी को नजर नहीं आ रहे। पहले तीन कृषि कानूनों का समर्थन कर दिया। बाद में लीपापोती का प्रयास। नतीजा, वोट बैंक खिसक गया। अब लोग इस दल पर यकीन नहीं कर रहे।’

‘क्षेत्रीय पार्टी ही पंजाब में राजनीतिक रिक्तता को भर सकती है’

‘पंजाब में क्षेत्रीय पार्टी की रिक्तता है, लेकिन कोई उसे ठीक से नहीं भर पा रहा। ये तय है कि पंजाब में वह स्पेस, स्थानीय पार्टी ही भरेगी, राष्ट्रीय पार्टी नहीं। अब अलगाववाद के जरिए वैक्यूम को भरने की कोशिश हो रही है। मौजूदा पीढ़ी के युवाओं ने पंजाब में उग्रवाद का वो दौर नहीं देखा, वो घाव नहीं देखे हैं। उन्हें उस दर्द का अहसास नहीं है। ऐसे में संभव है कि युवा इस वैक्यूम में भटकाव के रास्ते पर जा सकते हैं। वोट की राजनीति के आगे युवाओं की कोई नहीं सोच रहा। विदेशों में खालिस्तान की दुकानदारी चल रही है।’ 

रमिंद्र सिंह रास्ता सुझाते हुए बताते हैं, ‘ऐसे माहौल में भी अगर पंजाब में ध्रुवीकरण की राजनीति होती है, तो इससे मामला ज्यादा बिगड़ जाएगा। किसान आंदोलन में सकारात्मक ऊर्जा बची है। युवाओं और दूसरे वर्गों के बीच जाकर कोई सार्थक पहल करता है, तो मामला बिगड़ने से बच सकता है।” 

‘विदेश में बैठे लोग बिगाड़ रहे माहौल’

किसान आंदोलन के प्रमुख नेता सरदार जगमोहन सिंह बताते हैं, ‘कोई भी कुछ कहता रहे, मगर सच यही है कि इस मुहिम को खुराक मिल रही है। कोई खुद को दूसरा भिंडरावाला बताता है तो यह छोटी बात नहीं है। यहां खालिस्तान मूवमेंट के लिए जमीन तो है, और इसीलिए किसी पार्टी, लोकल संगठन या विदेश में बैठे लोगों को मौका मिल रहा है। इन्हें कहीं से तो बल मिल रहा है। पंजाब में नशा और बेरोजगारी, आज यही दो प्रमुख मुद्दे हैं। यूं कहें कि इन मुद्दों की आड़ में कोई भी आसानी से युवाओं को बरगला सकता है। कुछ हद तक यह सब हो भी रहा है। असमंजस और बहकावे में किसी को यह पता नहीं लगता कि कौन सा कदम सही या गलत है। पंजाब के ऐसे हालात में राजनीतिक दल या कोई बाहरी ताकत, इसका फायदा उठा सकती है।’

‘पंजाब में अब बहुत कुछ बदल रहा है। कई जगह ‘मजबूरी’ की स्थिति महसूस होने लगी है। पंजाब में खालिस्तान पांव फैला रहा है। दूसरी तरफ छोटे किसान और कामगार के बच्चे, किसी भी तरह से विदेश जाने के प्रयास में हैं। घर-धरती गिरवी रखी जा रही है। यहां एक बड़ा परिवर्तन देखिए। इन घरों के बच्चे विदेश जाकर अपने बाल कटा रहे हैं। वहां उनके दिमाग में ‘खालिस्तान’ जैसा कुछ नहीं आता। दूसरे मुल्क में वे आधुनिकता के परिवेश में ढल जाते हैं। पंजाब में गत वर्ष खालिस्तान से जुड़ी ज्यादातर घटनाएं हुई हैं। पंजाब में भारी बहुमत से सरकार बनाने वाली ‘आप’ के रहते खालिस्तान समर्थक लोकसभा सांसद बन जाते हैं। इन बातों को हल्के में लेना, मतलब पंजाब की स्थिति को बिगाड़ने की मूक सहमति देना है।’

 







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